मानव समाज

मनुष्य और समाज, शरीर और उसके अंगों के सदृश हैं। दोनों परस्पर पूरक हैं। एक के बिना दूसरे का स्थायित्व संभव नहीं है। दोनों में आपसी सहयोग परमावश्यक है। मनुष्य की समाज के प्रति एक नैतिक जिम्मेदारी होती है, जिसके बिना समाज सुव्यवस्थित नहीं रह सकता। स्वार्थी और संकुचित स्वभाव वाले व्यक्ति समाज का शोषण और अहित करते हैं। इस तरह के व्यक्ति समाज के शत्रु होते हैं, जो निरंतर असहयोग के रूप में दुर्भावना फैलाते रहते हैं और समस्याएं खड़ी करते हैं। ऐसे व्यक्ति समाज को पतन के गर्त में ले जाते हैं। ये व्यक्ति अविश्वसनीय, संदेहास्पद और झगड़ालू प्रवृत्ति के होते हैं। सुखी-संपन्न समाज तभी निर्मित हो सकता है, जब मनुष्य व्यक्तिवादी विचारधारा को छोड़कर समष्टिवादी बने। इसी में समाज का कल्याण और मानव का हित है। समाज में पारस्परिक सहानुभूति, प्रेमभावना, उदारता , सेवा व संगठन की भावनाएं अत्यंत आवश्यक हैं। इन्हीं से समाज का विकास और समृद्धि संभव है। समाज में व्यक्ति का सबसे बड़ा दायित्व है- परमार्थ। समाज के जरूरतमंद व निराश्रित व्यक्तियों की सेवा करना व्यक्ति का एक महान कर्तव्य होना चाहिए।