सुख की कल्पना
एक बार राजा भोज जंगल में घूम रहा था। वह प्यास से बेचैन हो उठा। कहीं पानी नहीं मिला। एक टीले पर कुछ भील दिखाई दिए, जो सर्दी-गर्मी जीतकर प्रकृतिस्थ बन गए थे। राजा ने इशारे से उनको बुलाया और पानी मांगा। भीलों के पानी ने राजा के प्राणों की रक्षा कर ली।
प्रसन्न होकर राजा ने कहा- तुम लोग भी कभी मेरे राज्य में आना। राजा ने अपना और शहर का नाम बता दिया। कुछ दिनों बाद वे धारा नगरी में राजभवन में जा पहुंचे। राजा ने उचित सत्कार किया। विभिन्न प्रकार के पदार्थ अलग-अलग कटोरियों में परोसे गए। वे, जो हमेशा बाजरे की रोटी खाने वाले थे, ऎसा भोजन देखकर सोचने लगे- ये लोग हमें बेवकूफ बनाना चाहते हैं, इसलिए जादू कर रहे हैं। पर हम भी समझदार हैं, नहीं खाएंगे ऎसी चीजें। वे उठ गए। राजा ने स्थिति को सम्भालते हुए बाजरे की रोटी और प्याज मंगाकर दिए। उन्होंने खुश होकर भोजन कर लिया। 
थोड़ी देर बाद राजा ने कहा- ये जंगल में रहते हैं। इनको यहां आने का अवसर कब मिलता है? आज आ गए हैं तो इनको नाटक भी दिखा दो। राजा की आज्ञा से नृत्य करने वाली çस्त्रयां नाचने लगीं।
भीलों ने सोचा कि यहां कोई वैद्य नहीं है। इन çस्त्रयों के "धनकिया वाय" का रोग हो गया है। हम इनको ठीक कर दें, ये हमारा उपकार कभी नहीं भूलेंगी। उन्होंने गरम लोहे की छड़ें निकालीं और उनके शरीर पर दाग दिया। çस्त्रयां कराहने लगीं। राजा ने कहा- जल्दी निकालो इन्हें। ये क्या जानें नाटक क्या है? शहरी वातावरण इनको आश्चर्य लगता है। कहने का अर्थ यह कि धर्मस्थान में उन्हीं को रस आता है जो आस्तिक हैं।