हम अकसर
जरूरत से ज्यादा सोचते हैं। सोच की गलियों में इतने चक्कर लगा लेते हैं कि सिर ही
चकराने लगता है। और फिर गुस्सा, ऊब और
पूरी तरह थक जाने के बाद ऐसी गली में मुड़ जाते हैं, जहां जाना ही नहीं होता। ऐसे घर में जाकर ठहर जाते हैं, जहां आराम मिलना तो दूर, रहा-सहा सुकून भी चला जाता है। ऊपर से दो-चार नई समस्याएं और जुड़
जाती हैं।
मनोविज्ञानियों की मानें तो
ज्यादा सोचना एक बड़ी बीमारी है। हम सोचते तो बहुत हैं, पर कुछ कर नहीं पाते। बस उलझते ही चले जाते हैं। तब हाथ में
जो काम है, उसकी जगह मन कहीं दूर ही भटक रहा होता
है। अभिनेता एंथनी हॉपकिंस कहते हैं, ‘हर बात
पर ज्यादा सोचना खुद को धीरे-धीरे मारना है। यह दुष्चक्र है।’ बिजनेस की दुनिया में बहुत सोचने की प्रवृत्ति को ‘एनालिसिस पैरालिसिस’ कहा जाता
है।
क्यों सोचते हैं हम ज्यादा
यह अच्छी बात है कि हम एक ही चीज को कई नजरिए से देख सकते हैं। पर जरूरत से ज्यादा सोचते हुए हम उन आशंकाओं पर नींद लुटा रहे होते हैं,जो शायद कभी होंगी ही नहीं। मनोविज्ञानी ऐमी जॉनसन कहती हैं, ‘ज्यादा सोचने की जड़ें हमारी असुरक्षा की भावना से जुड़ी हैं। जब हम ज्यादा सोच रहे होते हैं तो चाह रहे होते हैं कि लोग आपको स्वीकार करें। आपसे खुश रहें। सच यह होता है कि हम खुद से ही खुश नहीं होते।’ ज्यादा सोचने के कारण हम चीजों की बड़ी तस्वीर नहीं देख पाते। बदलाव में सहज नहीं होते और ऐसी समस्याओं पर काम करने लगते हैं, जो हमारा मुद्दा ही नहीं होतीं।
सोचें, पर ज्यादा नहीं
सोचना बुरा नहीं है। बस ज्यादा न सोचें। दिक्कत जरूरत से ज्यादा चिंता करने से है। हमें काम के बारे में सोचना भी होता है और उनकी योजना भी बनानी होती है। पर जरूरत से ज्यादा सोचना झुंझलाहट के सिवा कुछ नहीं देता। हम बीती बातों से कुछ अंश उठाते हैं, और आगे की कहानी गढ़ने लगते हैं। फिर उसे ही सच मान कर अनिष्ट की आशंका से घबरा उठते हैं। यह कहना गलत नहीं कि बहुत सोचना, नई समस्याएं पैदा करने की अद्भुत कला है। वे परेशानियां, जो असल में होती नहीं। कुल मिलाकर, जब भरोसा होता है, तब हम काम के बारे में सोचते हैं। उनकी योजना बनाते हैं। जब खुद पर या दूसरों पर भरोसा नहीं रख पाते तो सोचते चले जाते हैं। और हम जितना सोचते हैं, उतना कम समझ पाते हैं। अगर ज्यादा सोच कर भी कुछ हल नहीं मिल रहा, खुद को लेकर बुरे विचारों से घिर रहे हैं तो यह संकेत है कि अब ठहर जाएं। कुछ देर के लिए सोचना बंद करें। दिमाग को आराम दें। कुछ गहरी सांसें लें। खिड़कियों में से भरोसे और हिम्मत की हवा भीतर आने दें।
यह अच्छी बात है कि हम एक ही चीज को कई नजरिए से देख सकते हैं। पर जरूरत से ज्यादा सोचते हुए हम उन आशंकाओं पर नींद लुटा रहे होते हैं,जो शायद कभी होंगी ही नहीं। मनोविज्ञानी ऐमी जॉनसन कहती हैं, ‘ज्यादा सोचने की जड़ें हमारी असुरक्षा की भावना से जुड़ी हैं। जब हम ज्यादा सोच रहे होते हैं तो चाह रहे होते हैं कि लोग आपको स्वीकार करें। आपसे खुश रहें। सच यह होता है कि हम खुद से ही खुश नहीं होते।’ ज्यादा सोचने के कारण हम चीजों की बड़ी तस्वीर नहीं देख पाते। बदलाव में सहज नहीं होते और ऐसी समस्याओं पर काम करने लगते हैं, जो हमारा मुद्दा ही नहीं होतीं।
सोचें, पर ज्यादा नहीं
सोचना बुरा नहीं है। बस ज्यादा न सोचें। दिक्कत जरूरत से ज्यादा चिंता करने से है। हमें काम के बारे में सोचना भी होता है और उनकी योजना भी बनानी होती है। पर जरूरत से ज्यादा सोचना झुंझलाहट के सिवा कुछ नहीं देता। हम बीती बातों से कुछ अंश उठाते हैं, और आगे की कहानी गढ़ने लगते हैं। फिर उसे ही सच मान कर अनिष्ट की आशंका से घबरा उठते हैं। यह कहना गलत नहीं कि बहुत सोचना, नई समस्याएं पैदा करने की अद्भुत कला है। वे परेशानियां, जो असल में होती नहीं। कुल मिलाकर, जब भरोसा होता है, तब हम काम के बारे में सोचते हैं। उनकी योजना बनाते हैं। जब खुद पर या दूसरों पर भरोसा नहीं रख पाते तो सोचते चले जाते हैं। और हम जितना सोचते हैं, उतना कम समझ पाते हैं। अगर ज्यादा सोच कर भी कुछ हल नहीं मिल रहा, खुद को लेकर बुरे विचारों से घिर रहे हैं तो यह संकेत है कि अब ठहर जाएं। कुछ देर के लिए सोचना बंद करें। दिमाग को आराम दें। कुछ गहरी सांसें लें। खिड़कियों में से भरोसे और हिम्मत की हवा भीतर आने दें।
जो ज्यादा सोचते हैं...
अपनी गलतियों को छुपाते हैं। खुद पर हंस नहीं पाते।
थोड़ा सा काम बिगड़ने पर झुंझला जाते हैं। डर जाते हैं।
माफ नहीं कर पाते। छोटी बातों को मन से लगाए रहते हैं।
थोड़ा सा बदलाव होने पर बिदक उठते हैं।
दूसरों के बारे में बहुत जल्दी राय बनाते हैं। उनकी कमियों को ज्यादा देखते हैं।
कुछ भी नया करने से डरते हैं।
सब पर शक करते हैं।
अकसर सिर दर्द, उलझन, बेचैनी, पेट दर्द, कमर दर्द से ग्रस्त व हड़बड़ाए रहते हैं।
अपनी गलतियों को छुपाते हैं। खुद पर हंस नहीं पाते।
थोड़ा सा काम बिगड़ने पर झुंझला जाते हैं। डर जाते हैं।
माफ नहीं कर पाते। छोटी बातों को मन से लगाए रहते हैं।
थोड़ा सा बदलाव होने पर बिदक उठते हैं।
दूसरों के बारे में बहुत जल्दी राय बनाते हैं। उनकी कमियों को ज्यादा देखते हैं।
कुछ भी नया करने से डरते हैं।
सब पर शक करते हैं।
अकसर सिर दर्द, उलझन, बेचैनी, पेट दर्द, कमर दर्द से ग्रस्त व हड़बड़ाए रहते हैं।