ध्यान किसलिए करें ?
 ओशो से किसी ने एक दिन पूछा- आखिर हम ध्यान क्यों करें ? ओशो बोले, ठीक पूछा है, क्योंकि हम तो हर बात के लिए पूछेंगे कि किसलिए? कोई कारण होना जरूरी है, कुछ दिखाई पड़े कि धन मिलेगा, यश मिलेगा, गौरव मिलेगा, कुछ मिलेगा, तो फिर हम कुछ कोशिश करें। दरअसल जीवन में हम कोई भी काम तभी करते हैं जब कुछ मिलने को हो। ऐसा कोई काम करने के लिए कोई राजी नहीं होगा जिसमें कहा जाए कि कुछ मिलेगा नहीं और करो। वह कहेगा, फिर मैं पागल हूं क्या? जब कुछ मिलेगा नहीं, तो मैं क्यों करूं? 
लेकिन मैं आपसे निवेदन करता हूं कि जीवन में वे ही क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप कुछ ऐसा करते हैं जिसमें कुछ भी मिलता नहीं। यह मैं फिर से दोहराता हूं, जीवन में वे ही क्षण महत्वपूर्ण हैं, जब आप कुछ ऐसा करते हैं, जिसमें कुछ मिलता नहीं। जब कुछ मिलने के लिए आप करते हैं, तब हाथ बहुत कम आता है। कुछ बड़ा पाने के लिए कुछ पाने की आकांक्षा नहीं होनी चाहिए। अगर ऐसा हुआ तो बड़े काम में रुकावट आ जाएगी। 
ध्यान क्यों? 
ध्यान किसलिए करते हैं? अगर कोई आपसे पूछे कि आप किसी से प्यार क्यों करते हैं? तो क्या कहेंगे? आप कहेंगे कि प्रेम खुद में आनंद है। जरूरी नहीं कि इसका कोई कारण हो। प्रेम खुद में ही आनंद है। उसके बाहर और कोई कारण नहीं है जिसके लिए प्रेम किया जाए। अगर कोई किसी कारण से प्यार करता हो तो हम फौरन समझ जाएंगे कि गड़बड़ है, यह प्यार सच्चा नहीं है। मैं आपको इसलिए प्यार करता हूं कि आपके पास पैसा है, वह मिल जाएगा। तो फिर प्यार झूठा हो गया। मैं इसलिए प्यार करता हूं कि मैं परेशानी में हूं, अकेला हूं, आप साथी हो जाएंगे। वह प्यार भी झूठा हो गया। वह प्यार नहीं रहा। जहां कोई कारण है, वहां प्यार नहीं रहा, जहां कुछ पाने की इच्छा है, वहां प्यार की कोई गुंजाइश नहीं है। प्यार तो अपने आप में ही पूरा है। ठीक वैसे ही, ध्यान के आगे कुछ पाने को जब हम पूछते हैं- क्या मिलेगा? ऐसा सवाल हमारा लोभ पूछ रहा है। मोक्ष मिलेगा कि नहीं? आत्मा मिलेगी कि नहीं? नहीं, मैं आपसे कहता हूं, कुछ भी नहीं मिलेगा और जहां कुछ भी नहीं मिलता, वहीं सब कुछ मिल जाता है। जिसे हमने कभी खोया नहीं, जिसे हम कभी खो नहीं सकते, जो हमारे भीतर मौजूद है। अगर वह पाना है जो हमारे भीतर पहले से ही है तो कुछ और पाने की इच्छा का कोई मतलब नहीं हो सकता। सब पाने की इच्छा छोड़ कर जब हम मौन, चुप रह जाएंगे, तो उसके दर्शन होंगे जो हमारे भीतर हमेशा मौजूद है। ऐसा सब कुछ पाने के लिए कुछ न करने की अवस्था में आना बहुत जरूरी है। 
दौड़ना छोड़ दो! 
अगर मुझे आपके पास आना हो तो दौड़ना पड़ेगा , चलना पड़ेगा और अगर मुझे मेरे ही पास आना हो तो फिरकैसे दौडूंगा और कैसे चलूंगा ? अगर कोई आदमी कहे कि मैं अपने को ही पाने के लिए दौड़ रहा हूं , तो हम उसेपागल कहेंगे और उसे सलाह देंगे कि दौड़ने में तुम वक्त बर्बाद कर रहे हो। दौड़ने से क्या होगा ? दौड़ते हैं दूसरेतक पहुंचने के लिए , अपने तक पहुंचने के लिए कोई दौड़ना नहीं होता। इसलिए अपने तक पहुंचने के लिए हरतरह की दौड़ छोड़ देनी होती है। क्रिया होती है कुछ पाने के लिए , लेकिन जिसे स्वयं को पाना है उसके लिए कोईक्रिया नहीं होती , सारी क्रिया छोड़ देनी होती है। जो क्रिया छोड़ कर , दौड़ छोड़ कर रुक जाता है , ठहर जाता है, वह खुद को पा लेता है और यह खुद को पा लेना ही सबकुछ पा लेना है। जो इसे खो देता है वह सब पा ले तोभी उसके पाने का कोई मूल्य नहीं। लगातार दौड़ने के बाद एक दिन वह पाएगा कि वह खाली हाथ था और खालीहाथ ही है। अज्ञान की स्थिति में ध्यान के सिवा कोई और मार्ग नहीं है , और ध्यान की अवस्था में जाना अज्ञानीके बस का नहीं है।