हमारे आदर्श

जिसे भी हम अपना आदर्श बनाएं उसके अनुकूल हमें अपना जीवन भी बनाने का प्रयास करना चाहिए। ये आदर्श हमारे माता-पिता, संत, गुरु, देवता और परमात्मा के विभिन्न अवतार आदि हो सकते हैं। जिस व्यक्ति के माता-पिता के मन में यदि कभी यह भाव आ जाए कि ऐसी संतान हमारे यहां क्यों पैदा हुई, तो समझ लें कि ऐसी संतान को धिक्कार है। जिस व्यक्ति को पृथ्वी पर भेजकर विधाता के मन में कभी यह विचार उठा कि अमुक को व्यर्थ जन्म देकर हमने धरा पर क्यों भेजा, जिस व्यक्ति के कर्म, प्रवृत्ति व आचरण को देखकर विधाता के मन को दुख पहुंचे, तो ऐसे जीव को भी धिक्कार है। बहुत से लोगों के मन में अपनी संतान के लिए ऐसा भाव आते देखा गया है। कई सरल स्वभाव वाले गुरुओं के मन में भी शिष्य के कमरें को देखकर यह भाव आते देखा गया है। कितनी ही नारियों के मन में सास-ससुर, ननद-देवर, पति आदि के लिए ऐसा भाव आते देखा है। देवताओं, अवतारी पुरुषों और परमात्मा के मन में दुष्टों-राक्षसों के लिए भी यह भाव जरूर आता होगा।
जिसे हम अपना इष्ट या आदर्श बनाएं, उसके जीवन से प्राप्त होने वाली शिक्षाओं व उपदेशों को भी अपने जीवन में उतारना चाहिए। हममें से अनेक लोग कई बार दुर्भाग्यवश गुरुओं व अवतारी महापुरुषों के नाम पर अपनी कमजोरियों को छिपाने की कोशिश करते हैं। किसी से पूछिए कि भांग, चरस, गांजा आदि मादक पदार्थो का सेवन क्यों करते हैं? तो इस संदर्भ में ऐसे व्यक्ति का सीधा उत्तर होता है कि यह सब तो शिवजी का प्रसाद है, हम शिव भक्त हैं। अरे! शिव ने भांग क्यों खाई, खाई भी या नहीं, इसे तो जान लें पहले। भगवान शिव ने तो हलाहल विष का पान भी किया था, कोई आत्महत्या के लिए नहीं लोकोपकार के लिए। क्या आप विषपान कर सकते हैं? आप सर्प के नाम से भयभीत होते हैं, जबकि शिवजी के आभूषण सर्प हैं! अगर शिव जी सर्दी सहन नहीं कर पाते, तो वह कैलाश पर्वत पर खुले बदन क्यों रहते। लोग भूत-प्रेत के नाम से भयभीत होकर अंधविश्वासों की चौखट पर सिर रगड़ते हैं, लेकिन शिवजी के तो भूत-प्रेत गण हैं। त्याग, परोपकार, संयम, दृढ़ता और अहंकारहीनता के प्रतीक हैं शिव। थोड़ी-सी विषमता होने पर घर, परिवार व समाज में अशांति पैदा हो जाती है। शिव तो कितनी विविधताओं और विषमताओं वाले परिवार को समेट कर बैठे हैं।