विवेकानंद की 151वीं जयंती: पुनर्जागरण के अग्रदूत


इंसान को एक ऐसे धर्म के अनुसार जीवन बिताने की शिक्षा देनी चाहिए, जो उसकी विवेक-बुद्धि को जंचे और विज्ञान की परंपरा के अनुकूल हो..। स्वामी विवेकानंद ऐसे ही धर्म के हिमायती थे। उनकी 151वीं जयंती (12 जनवरी) पर जाने-माने चिंतकों के विचार..
विज्ञान और लोकतंत्र के समर्थक
हमारे युग की दो प्रमुख विशेषताएं विज्ञान और लोकतंत्र हैं। ये दोनों टिकाऊ हैं। हम शिक्षित लोगों को यह नहीं कह सकते कि वे तार्किक प्रमाण के बिना धर्म की मान्यताओं को स्वीकार कर लें। जो कुछ भी हमें मानने के लिए कहा जाए, उसे उचित और तर्क के बल से पुष्ट होना चाहिए। अन्यथा हमारे धार्मिक विश्वास इच्छापूरक विचार मात्र रह जाएंगे। आधुनिक मानव को एक ऐसे धर्म के अनुसार जीवन बिताने की शिक्षा देनी चाहिए, जो उसकी विवेक-बुद्धि को जंचे, विज्ञान की परंपरा के अनुकूल हो। इसके अतिरिक्त धर्म को लोकतंत्र का पोषक होना चाहिए, जो कि वर्ण, मान्यता, संप्रदाय या जाति का विचार न करते हुए प्रत्येक मनुष्य के बौद्धिक और आध्यात्मिक विकास पर जोर देता हो। कोई भी ऐसा धर्म, जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करता है अथवा विशेषाधिकार, शोषण या युद्ध का समर्थन करता है, आज के मानव को रुच नहीं सकता। स्वामी विवेकानंद ने यह सिद्ध किया कि हिंदू धर्म विज्ञान सम्मत भी है और लोकतंत्र का समर्थक भी। वह हिंदू धर्म नहीं, जो दोषों से भरपूर है, बल्कि वह हिंदू धर्म, जो हमारे महान प्रचारकों का अभिप्रेत था।
सर्वपल्ली राधाकृष्णन
निज भाषा की उन्नति
स्वामी जी जब सातवीं-आठवीं में पढ़ रहे थे, तब विद्यालय ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए उन्हें चुन लिया। आज जब सामान्य माता-पिता तड़प रहे हैं कि उनका बच्चा अंग्रेजी पढ़ जाए, लेकिन तब नरेंद्र ने उसका विरोध किया। वे रो पड़े, लड़े-झगड़े, एड़ियां रगड़ीं। उन्हें अंग्रेजी नहीं पढ़नी थी। आप जानते ही हैं कि उन्होंने अमेरिका और इंग्लैंड में जितने भी भाषण दिए, वे अंग्रेजी में ही थे। उन व्याख्यानों का समाचार जब अखबारों में छपा, तो लेखक यह लिखने से नहीं चूका कि ही स्पीक्स बेटर इंग्लिश दैन वी डू (वे हमसे अच्छी अंग्रेजी बोलते हैं)। किंतु विद्यालय में पढ़नेवाला बालक नरेंद्र अंग्रेजी पढ़ने का विरोध कर रहा था। जब उससे पूछा गया कि तुम अंग्रेजी क्यों नहीं पढ़ना चाहते? तो उसने कहा - क्या मैंने पूरी तरह बांग्ला पढ़ ली? क्या मैंने संस्कृत पढ़ ली, जो अंग्रेजी पढ़ने लगूं? 1902 में जब कांग्रेस का अधिवेशन कलकत्ता में हुआ, तो बंगाल के बाहर के कुछ प्रतिनिधि स्वामी से मिलने गए। वे अंग्रेजी में बोले तो स्वामी जी ने उन्हें रोक दिया। उन्होंने कहा, यदि बांग्ला नहीं बोल सकते, तो हिंदी में बोलिए। भारत की भाषा हिंदी है। स्वामी जी की भाषा-नीति इस प्रकार की थी कि पहले मातृभाषा, फिर हिंदी। इसके बाद संस्कृत और अंत में अंग्रेजी।
नरेंद्र कोहली
धर्म अध्यात्म में सेवा का आदर्श
स्वामीजी का व्यक्तित्व ऐसा था, जैसे वे कोई व्यक्ति न होकर राष्ट्र-प्रतीक हों। उनके शब्द हमें भीतर से जगाते और नींद से झिंझोड़ते हुए से लगते हैं। उनके हर शब्द से मानो एक गूंज ही उठती है - उत्तिष्ठ जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत। इसीलिए निराशा और गुलामी के अंधेरे में सोए देश को जगाने में जितना काम अकेले विवेकानंद ने किया, उतना सैकड़ों लोग मिलकर भी नहीं कर सके। अपने अंतिम समय में मानो मृत्यु की आंखों में आखें डालकर उन्होंने कहा- मैंने इतना काम कर दिया है कि अगले डेढ़ हजार सालों तक उसका असर रहेगा। वे संन्यासी होते हुए भी किसी वीर योद्धा की तरह भारत को पतन और निराशा की गर्त से बचाने के लिए दिन-रात संघर्ष कर रहे थे। उन्होंने पराधीन जनता के सामने एक ऐसा आदर्श रखा कि समूचे भारत में जागृति और स्वाभिमान की एक नई लहर दिखाई पड़ने लगी। धर्म और अध्यात्म को उन्होंने निष्क्रिय साधना की अंत:गुहाओं से निकालकर मानव-सेवा के आदर्श में बदला और देखते ही देखते विवेकानंद जातीय पुनर्जागरण के अग्रदूत बन गए।
प्रकाश मनु
एकाग्रता और अभ्यास का फल
स्वामी जी का पढ़ने का अभ्यास विलक्षण था। पुस्तक पढ़ते समय 10-12 सेंकेंड में वे पृष्ठ उलट देते थे। खेतड़ी नरेश राजा अजीत सिंह एक बार स्वामी जी के आबू प्रवास के समय उनके पास गए। राजाजी ने पूछा- आप इतनी जल्दी पृष्ठ पलट देते हैं, क्या इतनी देर में पूरा पृष्ठ पढ़ डालते हैं? स्वामी जी ने कहा, आपने देखा होगा कि जब कोई बच्चा पहले पहल पढ़ना सीखता है, तब वह एक-एक अक्षर को ध्यान से देखकर तब शब्द तक पहुंचता है। एक-एक शब्द बोलकर पूरा वाक्य पढ़ पाता है। जब उसका अभ्यास बढ़ने लगता है, तब पूरे शब्द और फिर पूरे वाक्य पर उसकी दृष्टि पड़ती है। इसी प्रकार मनुष्य में भाव ग्रहण करने की शक्ति हो जाती है, तो वह पूरा पृष्ठ एक साथ पढ़ सकता है। यह केवल एकाग्रता और अभ्यास का फल है।
पं. झाबरमल्ल शर्मा
मानवाधिकारों का पोषण
इंदौर से जब स्वामी जी पुन: खंडवा आ गए, उस समय वे समाज के उन लोगों के साथ रहे, जिन्हें समाज अति निम्न मानता था। स्वामी जी ने उनकी दयनीय स्थिति देखी, पर साथ ही गरीबी में पलता हुआ उनका विशाल हृदय भी देखा। वे नीच कहे जाने वाले लोगों के सौजन्य को देखकर अभिभूत हो गए। ऊंचे कहलाने वाले लोगों के शोषण और अत्याचार से उन लोगों की हुई दुर्दशा का स्मरण कर उनके नेत्र गीले हो गए। उन्होंने देखा कि इन गरीबों को सभी प्रकार के मानवाधिकारों से वंचित रखा गया है। पुरोहितों ने जन-साधारण को धर्म के उदात्त तत्वों से अनभिज्ञ रखा है, जिससे अपने अर्थलाभ के लिए उनका शोषण कर सकें। उनकी दशा देखकर स्वामी जी के हृदय की वेदना फूट उठी। उसी समय उनके मानस में एक संकल्प उठा। वह संकल्प था- इन नीच कहे जाने वाले लोगों को उठाकर सबके समकक्ष लाने का, उन्हें भी सबके समान अपनी उन्नति के लिए अवसर प्रदान करने का और छुआछूत के कलंक को मिटा देने का।
स्वामी आत्मानंद
(साभार : साहित्य अमृत)