एकाग्रता एक तपस्या
श्री अरविन्द
क्रांतिकारी से योगी के रूप में श्री अरविन्द का गमन भारतीय
आध्यात्मिक जगत की एक अद्भुत घटना है। योगी श्री अरविन्द ने ध्यान के नए स्तरों का
सूत्रपात किया। पेश है ध्यान पर उन्हीं का एक लेख उनकी पुण्यतिथि (5 दिसंबर) के अवसर पर
योग
में प्रार्थना और ध्यान का बहुत महत्व है, लेकिन जप या ध्यान को वस्तु के आनन्द या प्रकाश को अपने अन्दर लिए
हुए जीवित प्रेरणा के साथ आना चाहिए। अगर इसे यांत्रिक ढंग से गंभीर कर्तव्य के
रूप में किये जाने वाले कार्य की तरह किया जाये तो वह रुचि के अभाव और शुष्कता की
ओर प्रवृत्त होगा और उसका कोई प्रभाव न होगा। अगर ध्यान में यह कठिनाई हो कि सभी
तरह के विचार अन्दर आते हैं तो यह विरोधी शक्तियों के कारण नहीं, बल्कि मानव मन की सामान्य प्रकृति के
कारण है। इससे छुटकारा पाने के कई तरीके हैं। उनमें से एक है विचार को देखना और
मानव मन के उस रूप का अवलोकन करना, जिसे विचार दिखाते हैं। लेकिन उन्हें किसी तरह की स्वीकृति न देना और
जब तक वे चुप न हो जाएं, तब
तक उन्हें कमजोर पड़ते रहने देना-विवेकानन्द ने अपने राजयोग में इस तरीके को
अपनाने की सलाह दी है। दूसरा तरीका है, विचारों को ऐसे देखना, मानों वे अपने नहीं हैं, बल्कि साक्षी पुरुष की भांति पीछे खड़े रहना और उनका अनुमोदन करने से
इनकार करना। विचार बाहरी प्रकृति से आने वाली चीजों के रूप में देखे जाते हैं और
उनके बारे में यह अनुभव होना चाहिए, मानों वे मन के देश को पार करने वाले पथिक हैं, जिनके साथ तुम्हारा कोई सम्बंध नहीं और
जिनमें तुम्हें कोई रस नहीं है।
एक
तीसरा सक्रिय तरीका है, जिसमें
तुम यह देखते हो कि विचार कहां से आ रहे हैं और तुम्हें इसका पता लगता है कि वे
तुम्हारे अंदर से नहीं, बल्कि
मानों सिर के बाहर से आ रहे हैं। अगर तुम उन्हें आते हुए पकड़ लो तो उनके अंदर
घुसने से पहले ही तुम्हें उन्हें पूरी तरह एकदम फेंक देना चाहिए। शायद यह सबसे
कठिन तरीका है और उसे सब नहीं कर सकते, लेकिन अगर इसे किया जा सके तो यह नीरवता की ओर जाने वाला सबसे छोटा, सबसे शक्तिशाली मार्ग है। जब तुम ध्यान
करने की कोशिश करते हो तो अंदर जाने के लिए जागती हुई चेतना खोकर, अन्दर गंभीर आंतरिक चेतना में जगने के
लिए एक दबाव पड़ता है। लेकिन पहले-पहल मन इस दबाव को सोने के दबाव के रूप में लेता
है, क्योंकि नींद ही उस प्रकार की एकमात्र
आंतरिक चेतना है,
जिसका
वह अभ्यस्त होता है। अत: ध्यान द्वारा योग में बहुधा नींद ही पहली कठिनाई होती है, लेकिन अगर तुम डटे रहो, तो क्रमश: नींद आंतरिक सचेतन अवस्था
में बदल जाती है।
मस्तिष्क
की एकाग्रता हमेशा एक तपस्या होती है और अनिवार्य रूप से तनाव लाती है। केवल तभी
जब तुम मस्तिष्क मन से एकदम पूरी तरह से उठा लिये जाओ, तभी मानसिक एकाग्रता का तनाव विलीन
होता है। तुम्हें शुरू-शुरू में लंबे समय तक एकाग्र होकर स्वयं को थकाना नहीं
चाहिए। अगर तुम इसे करने के अभ्यस्त नहीं हो तो क्लांत मन में ध्यान अपनी शक्ति व
अपना महत्व खो बैठता है। तुम एकाग्रचित्त होने की जगह शिथिल होकर ध्यान कर सकते
हो। धीरे-धीरे जब एकाग्रता सामान्य बनती जाए, केवल तभी तुम अधिकाधिक लंबे समय के लिए ध्यान कर सकते हो। अपने ऊपर
भार देना व एकाग्र होना एक ही चीज नहीं। भार डालने में बहुत उतावली व प्रयास की
उग्रता होती है,
जबकि
एकाग्रता स्वभावत: शांत व स्थिर होती है।