क्यों खो दिया सुनहरा अवसर
आचार्य सुभद्र मुनि
आचार्य
नागार्जुन जितने बड़े संत थे, उतने
ही बड़े रसायनवेत्ता और वैज्ञानिक भी थे। स्वाभाविक ही था कि मानव-कल्याण से रहित
वैज्ञानिक खोजें उनके लिए निर्थक होतीं। अपनी प्रयोगशाला के लिए उन्हें एक सहायक
की आवश्यकता पड़ी। योग्य व्यक्ति की खोज शुरू हुई। विज्ञान के क्षेत्र में कार्यरत
व्यक्तियों के बीच यह समाचार तेजी से फैल गया। आचार्य का सहायक नियुक्त होना बड़ी
उपलब्धि थी। सहायक को नई-नई जानकारियां तो मिलती हीं, वैज्ञानिक समुदाय में उसकी प्रतिष्ठा
भी एकाएक बढ़ जाती। अनेक वैज्ञानिक उत्सुकता से प्रतीक्षा कर रहे थे कि आचार्य
नागाजरुन किसे अपना सहायक नियुक्त करते हैं। एक दिन सहायक बनने के लिए दो युवक
आचार्य के पास आए। शिक्षा की दृष्टि से दोनों के पास अनेक उपलब्धियां थीं।
शैक्षणिक और विज्ञान संबंधी योग्यता के आधार पर यह निर्णय करना कठिन था कि किसे
चुना जाए, किसे नहीं। आचार्य ने दोनों युवकों को
कुछ पदार्थ देते हुए कहा,
‘ये पदार्थ ले
जाओ। प्रयोग करो और दो दिन बाद अपने प्रयोगों के परिणाम लेकर आओ।’
दो
दिन बीते, दोनों युवक आचार्य के पास आए। पहले
युवक ने परिवर्तित पदार्थ आचार्य के सामने प्रस्तुत करते हुए अपने प्रयोग की
प्रक्रिया एवं उसके परिणाम की जानकारी दी। प्रयोग नि:संदेह सफल रहा था। आचार्य की
दृष्टि दूसरे युवक की ओर गई। उसने आचार्य द्वारा दिए गए पदार्थ को ज्यों का त्यों
लौटा दिया। उसने कहा, ‘क्षमा करें आचार्य! मैं कोई भी प्रयोग
करने का समय ही नहीं निकाल सका।’ आचार्य
ने पूछा, ‘क्यों? मेरा सहायक बनने का अवसर तुमने क्यों खो दिया। ऐसी क्या व्यस्तता थी, जो इससे भी ज्यादा महत्वपूर्ण थी।’ दूसरे युवक ने कहा, ‘आपसे पदार्थ लेकर जब मैं अपने घर की ओर
जा रहा था तो राह में एक व्यक्ति पड़ा मिला। उसे तेज बुखार था। वह अर्धमूर्छित
अवस्था में बुदबुदा रहा था- मेरा कोई नहीं। उसे मैं उठा कर अपने घर ले गया।
चिकित्सा व्यवस्था की। यही कारण है कि मैं प्रयोग नहीं कर सका। मैं उसे मरने के
लिए छोड़ सकता तो प्रयोग कर सकता था, वह
मैं नहीं कर पाया।’
यह
बता कर जब युवक चलने लगा तो आचार्य बोले, ‘रुको, आज से तुम मेरे सहायक हुए।’ युवक सुन कर हतप्रभ रह गया। जिसने भी
आचार्य का निर्णय सुना, वह असहमत हुआ और आचार्य के चयन पर
प्रश्न उठाया। सभी मिल कर आचार्य नागार्जुन के पास पहुंचे और पूछा, ‘एक व्यक्ति की योग्यता आपने उपेक्षित
कैसे की? उसने प्रयोग भी नहीं किया.. योग्यता भी
प्रमाणित नहीं की, उसे आपने अपना सहायक कैसे बना लिया..
किस आधार पर?’ आचार्य ने उत्तर दिया, ‘मानवीय आधार पर। सफलता और सार्थकता में
अंतर होता है मित्रो! पहला युवक सफल रहा, किंतु
दूसरा युवक सार्थक भी हुआ। अपने आचरण द्वारा उसने साबित कर दिया कि सृष्टि के समस्त
प्रयोग और उनकी उपलब्धियां अंतत: मनुष्य के लिए हैं। इसके लिए उसने अपनी आजीविका
भी अपनी ओर से त्याग दी। निश्चित ही वह व्यक्ति विज्ञान के लिए तथा समाज के लिए
महत्वपूर्ण है, इसीलिए मैंने उसे ही अपना सहायक चुना।’ यह उत्तर सुन किसी के पास भी कहने को
कुछ नहीं बचा। सभी ने आचार्य नागार्जुन को प्रणाम किया और लौट गए।