ओशो का चिंतन..जीवन में सतत क्रांति



क्रांति आज के समय में सतत चलती रहती है। इसका हिस्सा बनना चाहते हैं तो बदलाव के लिए तैयार रहना होगा। ओशो का चिंतन..
अतीत के इतिहास में क्रांतियां होती थीं और समाप्त हो जाती थीं, लेकिन आज हम सतत क्रांति में जी रहे हैं। पहले क्रांति एक घटना थी, अब क्रांति जीवन है। पहले क्रांति समाप्त होती थी, अब वह समाप्त नहीं होगी। आने वाले भविष्य में मनुष्य को सतत क्रांति और परिवर्तन में ही रहना होगा।
अब तक मनुष्य स्थायी समाज का नागरिक था। अब वह सतत क्रांति का नागरिक हो सके, इसका ध्यान रखना जरूरी है। भविष्य के मनुष्य या नए मनुष्य के संबंध में सोचते समय पहली बात यह सोच लेनी जरूरी है कि परिर्वतन के जगत में जहां रोज सब बदल जाएगा, हम कैसी नीति विकसित करें? हम कैसा आचरण विकसित करें? फिर से पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है। अब तक के सारे आदर्श और मूल्य जिस ढांचे में विकसित किए गए थे, वे भविष्य के मनुष्य के काम के नहीं रह गए हैं। पहले जिस मनुष्य को बनाने की कोशिश की गई थी, वह भय के ऊपर खड़ा था। वह बुरा न करे, इसलिए नर्क के भय से हमने उसे पीड़ित किया था और वह अच्छा कर सके, इसलिए स्वर्ग के प्रलोभन दिए थे। लेकिन आज स्वर्ग और नर्क दोनों ही विलीन हो गए हैं, उनके साथ ही वह नैतिकता भी विलीन हो रही है, जो भय और प्रलोभन पर खड़ी थी।
एक चर्च के स्कूल में एक पादरी बच्चों को नीति की शिक्षा देने आता था। उसने बच्चों को छोटी-सी कहानी सुनाई। इसके जरिये वह बच्चों को समझाना चाहता था कि नैतिक साहस मनुष्य के जीवन में बहुत जरूरी चीज है। वह कहानी थी, 'तीस बच्चे किसी पर्वत पर घूमने गए। वे दिन भर में थक गए। रात हो गई। भयंकर सर्दी पड़ रही थी। रजाई वाले बिस्तर तैयार थे और सबको नींद भी आ रही थी। उन्तीस बच्चे सो गए, लेकिन एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना करने के लिए अंधेरे कोने में ठंड से सिकुड़ा हुआ बैठा है।' पादरी ने बच्चों को कहा, 'वह जो एक है, उसमें बड़ा नैतिक साहस है उन्तीस के विरोध में जाने का। एक बच्चा अपनी रात्रि की अंतिम प्रार्थना पूरी किए बिना नहीं सोता, उसमें बड़ा नैतिक साहस है।'
पादरी सात दिन बाद वापस आया। उसने बच्चों से कहा, 'एक हफ्ते पहले मैंने तुम्हें नैतिक साहस की कहानी सुनाई थी, अब तुम मुझे नैतिक साहस की कोई कहानी सुनाओ?' एक बच्चा खड़ा हुआ। उसने कहा, 'मेरी कहानी में और भी ज्यादा नैतिक साहस है।' बच्चे ने कहानी सुनाई - 'तीस पादरी
पहाड़ पर गए। वे दिन भर थके-मांदे वापस लौटे। बहुत ठंड पड़ रही है। बिस्तर उन्हें पुकार रहे हैं, लेकिन उन्तीस पादरी प्रार्थना करने बैठ गए और एक पादरी सोने चला गया है। उस एक पादरी में बहुत नैतिक साहस है, उन्तीस पादरियों के विरोध में जाने का।'
यह आज का नया मनुष्य है। पिछली सदी के किसी बच्चे ने यह न सोचा होगा। जब उन्तीस लोग इसलिए प्रार्थना कर रहे हों कि जो प्रार्थना नहीं करेगा, वह नर्क भेज दिया जाएगा, ऐसे में एक आदमी का प्रार्थना करने के बजाय बिस्तर पर जाना बहुत साहस की बात है। यह साहस आज किया जा सकता है, क्योंकि नर्क और स्वर्ग हवाई कल्पनाओं से ज्यादा नहीं रह गए हैं। आज आदमी निर्भय है। इस निर्भय आदमी पर पुरानी नीति लागू नहीं हो सकती।
..तो फिर क्या मनुष्य को अनीति में छोड़ देना है? क्या मनुष्य के निर्भय होने का अर्थ यह होगा कि वह अनैतिक हो? अगर यह होगा तो समाज निरंतर गहरे खतरों में पड़ जाएगा। क्योंकि नैतिक होना बहुत जरूरी है। नैतिक होने का एक ही अर्थ है कि मैं दूसरे व्यक्ति की भी चिंता करता हूं। मैं अकेला नहीं हूं। हमारे चारों तरफ पड़ोसियों का बड़ा जाल है और मैं पड़ोसी के लिए भी दायित्वपूर्ण हूं। उसे दुख न पहुंचे, इस भांति जीता हूं। नैतिकता का आधार इतना है।
आदमी को अब डराकर नैतिक नहीं बनाया जा सकता। पुराना आदमी बुद्धि खोकर नैतिक था। बुद्धि खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बदतर है। पुराना आदमी नैतिक था व्यक्तित्व खोकर। व्यक्तित्व खोकर नैतिक होना अनैतिक होने से भी बुरा है। पुराना आदमी समूह का एक अंग था, व्यक्ति नहीं। उसके पास कोई व्यक्तित्व न था। वह जातिवादी समूहों में बंद था। वह समूह के खिलाफ इंचभर चलता तो कुएं पर पानी पीना बंद, हुक्का बंद, भोजन बंद, विवाह बंद..।
नए दौर में हमें सब बदल देना पड़ेगा। अब नई नीति- स्वस्थ, सुखी आदमी को, मुस्कराते आदमी को स्वीकार करेगी। हमें बुद्ध और महावीर की नई मूर्तियां ढालनी होंगी, जिनमें वे खिलखिलाकर हंस रहे हों। नए आदमी को सुखी, स्वस्थ्य और आनंदित- किसी स्वर्ग में नहीं, बल्कि इस पृथ्वी पर ही अनुभव कराना पड़ेगा।