क्या आप श्रद्घा के साथ मंदिर मस्जिद जाते हैं?


मैं तुमसे कहता हूं: तुम मंदिर भी जाते हो, मस्जिद भी, गुरुद्वारा भी और बिना श्रद्धा के जाते हो; इसलिए तुम्हारे जाने में कुछ अर्थ नहीं है। तुम जाते हो, वह भी एक उपक्रम हो गया है जीवन की व्यवस्था का। और सब जाते हैं, तुम भी जाते हो।

न जाओ तो अड़चन आती है, जाते रहो तो सुविधा रहती है, समाज में प्रतिष्ठा रहती है कि बड़े धार्मिक हो। धार्मिक का अभास बना रहे तो कई तरह की सुविधाएं बनी रहती हैं; धार्मिक का आभास टूट जाये तो लोग नाराज होने लगते हैं, लोग अड़चनें देने लगते हैं।

चलो एक नाटक है, करते रहो; मगर श्रद्धा नहीं है। क्योंकि जब तुम मंदिर की तरफ जाते हो तब मैं तुम्हारे पैरों में नर्तन नहीं देखता। जब तुम मंदिर से लौटते हो तो तुम्हारी आंखों में झलकते आनंद के आंसू नहीं देखता। जब तुम मंदिर में हाथ जोड़ते हो तो मैं तुम्हरा हृदय जुड़ा हुआ नहीं देखता।

श्रद्धा खो गयी है। और श्रद्धा खो गयी तो आंख खो गयी-परमात्मा को देखने वाली आंख खो गयी। लेकिन जो खो गया है, वह अब भी तुम्हारे भीतर मौजूद है। बंधा पड़ा है, उसे खोला जा सकता है।

जहां श्रद्धा खुल जाए, जिस आघात से, उसका नाम ही सत्संग है। जिसकी मौजूदगी में श्रद्धा की कली खिले और फूल बन जाए उसी का नाम सदगुरु है। - ओशो