आनंद के स्रोत 

परमात्मा ज्योतिस्वरूप है। सृष्टि का कण-कण उसकी ज्योति से ही प्रकाशित है। ऊर्जा के रूप में वही ज्योति चारों ओर बिखरी है। जीवात्मा उसी ज्योति का अंश है। परमात्मा अनश्वर है, चेतन है, पवित्र है और आनंदमय है। इसलिए अंशरूप जीवात्मा भी अनश्वर, चेतन, पवित्र और आनन्द स्वरूप है। माया के कारण आत्मा और परमात्मा के बीच दूरियां बढ़ जाती हैं। आनंद उससे कोसों दूर भाग जाता है। वह दुख-सुख के चक्र में चक्कर काटता रहता है। सुख पाने का वह जितना प्रयास करता है उसे उतना ही अधिक दुख झेलना पड़ता है। ऐसा इसलिए, क्योंकि सुख का विपर्यय दु:ख है। यदि मनुष्य को सुख मिलेगा तो दु:ख भी अनिवार्य है, किंतु आनंद का कोई विपर्यय नहीं है। एक बार आनंदानुभूति हो जाए तो हम बार-बार आनंद ही पाना चाहेंगे, सुख की कामना धीरे-धीरे समाप्त हो जाएगी। इसीलिए तो भारतीय मनीषियों ने आत्म-साक्षात्कार द्वारा आनंद प्राप्त करने की बात कही है। आनंद-प्राप्ति का सबसे बड़ा स्रोत यही है। आत्मनिष्ठ होकर इस आनंद को सभी पा सकते हैं।
कला की साधना भी आनंद-प्राप्ति का एक स्रोत है। वैसे तो सभी ललित कलाएं हमें आनंद प्रदान कराती हैं, जैसे स्थापत्य कला के अंतर्गत ताजमहल व दिलवाड़ा जैन मंदिर आदि हमें आनंद देते हैं। संगीत कला में नृत्य, गान और वाद्य-यंत्रों से निकलने वाली ध्वनियां हमें आनंदित करती हैं, पर काव्य-कला से मिलने वाला आनंद सर्वोपरि है। इसीलिए उसे 'ब्रह्मानंद सहोदर' भी कहा गया है। अविद्या के नष्ट होने पर जैसे आत्मा के चारों ओर छाया कालुष्य का घेरा मिट जाता है और साधक माया के बंधनों से मुक्त होकर आनंदावस्था को प्राप्त होता है, वैसे ही साहित्य से हृदय सारे बंधनों से मुक्त होकर 'रसदशा' को प्राप्त होता है और सहृदय पाठक या श्रोता आनंद-सागर में डूब जाता है। यदि हम अपने जीवन में वास्तविक सुख-शांति पाना चाहते हैं, तो हमें सुख की मृगतृष्णा को छोड़कर आनंद पाने का प्रयास करना चाहिए। आत्म-साक्षात्कार और कला-साधना सबके लिए संभव नहीं है, पर परोपकार और सेवा-मार्ग पर तो सभी चल सकते हैं। इस पथ पर चलने वाले का धीरे-धीरे यही संस्कार और स्वभाव बन जाता है और फिर उसके जीवन का हर क्षण आनन्दमय हो जाता है।
[डॉ. सरोजनी पांडेय]