संतोष का अर्थ
आज
बाजारवाद से प्रभावित होकर भौतिकवाद के प्रति प्रबल आकर्षण इतना विकराल रूप लेता
जा रहा है कि वैश्विक स्तर पर मानव मानव के प्रति संवेदनाशून्य हो गया है। अधिकतर
मनुष्य केवल बाजारवाद को ध्यान में रखकर ही कार्य-व्यवहार कर रहे हैं। भौतिक
उन्नति के लिए केवल अर्थ की ही प्रधानता होने के कारण लोग येन-केन-प्रकारेण
अर्थोपार्जन में लिप्त हैं। इसीलिए भ्रष्टाचार का आचरण पनपता जा रहा है। भारतीय
संस्कृति का आधार रखने वालों ने बहुत सोच-विचार के बाद और अनुभवों के आधारपर भौतिक
संपन्नता के लिए मृग-मरीचिका की तरह माया-मोह व तृष्णा से परे रहकर अपना जीवन
आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख होने का आग्रह किया है। आज व्यक्ति असीमित इच्छाओं की
पूर्ति के लिए असंतोष का जीवन जी रहा है। वह भूल रहा है कि सभी इच्छाओं और कामनाओं
की पूर्ति संभव नहींहोती। एक इच्छा की पूर्ति होने पर अनेक पूरक-इच्छाएं पनपने
लगती हैं। इसीलिए व्यक्ति को संतोषी होना चाहिए। कहा गया है कि संतोष ही परम सुख
है। धर्म के बगैर धन का सही उपयोग नहींहो सकेगा। धर्म हमें मर्यादित होकर जीना
सिखाता है। इस प्रकार मेहनत से कमाया धन अधिक सुख, शांति व संतोष प्रदान करता है।
प्रख्यात
विचारक आचार्य चाणक्य ने संतोष को परिभाषित करते हुए बताया है कि हमें किन पर
संतोष करना चाहिए और किन पर संतोष नहींकरना चाहिए। उन्होंने कहा है, अपने भोजन और अपने धन पर जितना, जो कुछ, जैसा है, उस पर संतोष करने से हमें आनंद और सुख
मिलेगा।' संतोष जहां हमारे लिए आनंद का सागर है, वहीं आचार्य चाणक्य ने एक संदर्भ विशेष
में असंतोष करना भी स्वीकार किया है। उन्होंने लिखा है-विद्या, जप और दान करने में संतोष नहींकरना
चाहिए। हमने थोड़ा ही अध्ययन किया, थोड़ी
ही परमेश्वर की भक्ति की और कुछ ही दान दिया तो ये संतोष के कारक न बनें। इन तीन
उपादानों पर असंतोष रहा तो हमारा ज्ञानार्जन के प्रति, भगवत् भक्ति के प्रति और असहाय, दुखी व जरूरतमंदों के प्रति दान देने
की प्रवृत्तिबनी रहेगी। जीवन में संतोष करते हुए संतुष्ट रहना ही श्रेयस्कर है।
[सत्यकाम पहारिया]