दशहरे से
पर्व उत्सवों की एक शृंखला शुरू होती है जो दीपावली तक जाती है। लगभग प्रतिदिन
होने वाले अायोजन अनुष्ठान में झलकने वाली खुशी और मौज को बरकरार रखने का एक
सालाना संस्कार भी है यह ।
उत्सव
मनुष्य का स्वभाव है। कवि रवीद्रनाथ ठाकुर ने उसे मनुष्य की पहचान ही कहा है। उसे
मनुष्य की जन्मजाति से जोड़ा है । मान्यता है कि कृष्ण और गोपियों के महारास से
शुरू हुए इस उत्सव की गरमाहट आकाश में चमकते चांद और उसकी रोशनी में टिमटिमाते
तारों के तले महसूस हो सकती है।
भीतर जब भी
कोई खुशी होती है, तो लगता है कि जैसे एक आवेग उठ रहा
है और ऊपर की ओर बढ़ रहा है। पीड़ा, निराशा और अवसाद होती है तो प्राणशक्ति भीतर ढलने
लगती है। उल्लास के समय वह शक्ति ऊपर उठने लगती है। वह शक्ति ही क्यों, जीवन में जब भी कोई क्षण
आनंद-उल्लास का आता है तो चित्त प्रफुल्लित होता है। इस अहसास का नाम ही उत्सव है।
उत्सव शब्द की व्यंजना ही ऊपर उठते हुए रस अर्थात भाव के रूप में है। यज्ञ आयोजनों
में सोमलता को निचोड़ कर जो रस निकाला जाता था, उस प्रक्रिया को सवन कहते थे। उस रस को पीने के बाद
उमगने वाला उल्लास ही उत्सव के अर्थ में प्रयुक्त होता रहा।
सोम, मधु या औषधियों से बना पेय पीने पर
था, तो उसका प्रभाव भीतर एक निश्चित
खुशी जगाने के रूप में होता था। दीपावली एेसा उत्सव आयोजन है, जिसमें लंबे समय तक आनंद उल्लास की
अनुभूति होती है। यों यह त्यौहार पांच दिन में और अब तो तीन या दो दिन में ही
संपन्न हो जाता है। लेकिन जब उत्सवधर्मिता पूरे निखार पर थी तो दशहरे से शुरू होकर
दीपावली तक बीस-बाईस दिन यह उत्सव मनाया जाता था। राम की विजय और उससे पहले भगवती
दुर्गा असुरों के दलन से शुरू होकर शरद पूर्णिमा और दीपावली तक होने वाले
त्यौहारों की शृंखला में प्रतिदिन कितने ही पर्व मनाए जाते रहे। पर्व का अर्थ गांठ
है। गांठ अर्थात रस युक्त वनस्पतियों के तने या शाखाओं में वह ग्रंथी जिसे तोड़ने
पर रस निकलता है। यह ग्रंथी गन्ने में साफ दिखाई देती है। दीपावली के बीस-बाईस दिन
के उत्सव में गन्ने का प्रचुर उपयोग होता रहा है।
पंरपरा के
अनुसार मनाए जाने वाले उत्सव और व्रत ब्राह्मांड की खगोलीय घटना, धरती के वातावरण परिवर्तन, मनुष्य के मनोविज्ञान और सामाजिक
सांस्कृतिक कर्तव्यों को ध्यान में रखते हुए की गई है। पंरपरा और विधि उचित नियम
से मनाने वाले उत्सव और व्रत से जीवन के सभी संकट से मुक्त हुआ जा सकता है। निजी
तौर पर किसी को खुशी होती है तो उसे छुटपुट रूप में व्यक्त कर लिया जाता है, लेकिन पर्व आयोजन उस उल्लास की
विधिवत अभिव्यक्ति है। उस अभिव्यक्ति की मर्यादा और विधानों के लिए धर्मसूत्रों
तथा स्मृतिग्रंथों में पर्याप्त विवेचन मिलते है। इन निर्देशों से चित्त और घर में
शांति मिलती है।
कर्तव्यों के कई मनोवैज्ञानिक, सामाजिक और आध्यात्मिक कारण और लाभ हैं।
जो मनुष्य लाभ की दृष्टि से भी इन कर्तव्यों का पालन करता है वह भी अच्छाई के
रास्ते पर आ ही जाता है। दुख: है तो दुख से मुक्ति का उपाय भी कर्तव्य ही है।
लक्ष्मण
चैतन्य
साभार अमरउजाला