मन का मापदंड
मनुष्य
जब भी किसी छोटे या बड़े मुद्दे या वस्तु के विषय में कोई निर्णय लेने का प्रयास
करता है तो वह प्राय: भूल कर बैठता है। चूंकि वर्तमान संदर्भ में सवाल यह है कि
मानव मन सीमित है इसलिए उसका निर्णय सही कैसे हो? इस प्रकार जहां तक मनुष्य के मापदंड का प्रश्न है, उसके विषय में विचारने पर आप यह बात
दर्ज करेंगे कि मनुष्य के मापदंड का आधार ही अत्यंत सीमित है। किसी जलाशय को हम
अपने हाथों के मापदंड से नापने में समर्थ होते हैं, किंतु यदि हम किसी समुद्र को उसी प्रकार नापना चाहें तो हम असहाय हो
जाएंगे।
मान
लें कि जलाशय अगर समुद्र से भी गहरा हो तो उसको माप सकना हमारे लिए असंभव हो
जाएगा। मनुष्य के माप की परिधि में जो है वह यदि बहुत बड़ा हो तो संस्कृत में हम
उसे 'विशाल' कहेंगे। जैसे हिमालय बहुत ही बड़ा है, पर उसे भी मापा जा सकता है। हम कहते हैं कि वह पूर्व से पश्चिम तक
इतने मील लंबा है, उत्तर से दक्षिण तक इतने मील तक चौड़ा
है, पर मनुष्य के छोटे मापदंड से मन की
सीमित शक्ति की सहायता से और छोटे मापक यंत्र के द्वारा जिसे मापना असंभव हो उसे 'वृहत' कहते हैं । इसी कारण ईश्वर को वृहत् कहा जाता है, क्योंकि उन्हें मापने में मनुष्य का मन
असमर्थ रह जाता है। उन्हें मापे जाने के बाद मन लौटकर कह उठता है-'नहीं, मैं माप नहीं सका।' इसी
को कहा जाता है 'वृहत'। वह कुछ ऐसे भी हैं कि जो भी उनके निकट जाता है, वह भी बहुत बड़ा हो जाता है।
जो
उनका ध्यान करते हैं उन्हें भी वह अपने समान बना लेते हैं। वह उन्हें अपना बना
लेते हैं कि उनकी अपनी पृथक सत्ता रहती ही नहीं। इसी कारण उन्हें कहा जाता है 'विपुल'। विपुल हैं,
इस कारण ही वह
ब्रह्म हैं। इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण बात यह है कि यदि वह अपने नाम की मर्यादा
बनाए रखना चाहते हैं तो जो उनका ध्यान करेंगे, जो उनकी कामना करेंगे उसे भी ईश्वर बड़ा बनाने के लिए बाध्य हैं। ऐसा
इसलिए, क्योंकि यदि वह ऐसा नहीं करेंगे, तो मैं उनसे कहूंगा, 'दया करके अपना ब्रह्म नाम छोड़ दें।' उन्हें भक्त बृहत् कहते हैं, और साथ ही कहते हैं 'दिव्य'। उस दिव्य शक्ति को पहचानने के लिए आध्यात्मिकअनुभूति की जरूरत है।
यह आध्यात्मिक अनुभूति नियमित साधना के द्वारा संभव है।
[श्रीश्री आनंदमूर्ति]