मानव
सच्चा
मानव कौन है, इस जिज्ञासा का समाधान वेद सहित हमारे
तमाम धर्मग्रंथों में किया गया है। ऋषि व शास्त्रकार कहते हैं कि जिसका आचरण
पवित्र है, जो निष्कपट है, जो दुखी व्यक्ति की सहायता को तैयार
रहता है, वही मानव कहलाने का अधिकारी है।
कपटी
और आडंबरी व्यक्ति जब अपने परिजनों की दृष्टि में ही विश्वसनीय नहीं होते, तो भला वे ईश्वर को कैसे प्रिय हो सकते
हैं। इसलिए तुलसीदास जी ने लिखा है, मन, कर्म, वचन छाड़ि चतुराई। यानी चतुराई से पूरी तरह मुक्त होकर ही कोई
व्यक्ति भगवान श्रीराम का प्रिय बन सकता है। जो मानव चतुराई नहीं छोड़ता, वह कदापि ईश्वर का प्रिय नहीं हो सकता।
आदिकवि
वाल्मीकि सत्यमेवेश्वरो लोक कहकर विशुद्ध सत्य, निष्कपट
व्यक्ति को साक्षात ईश्वर बताते हैं। उन्होंने कहा है, संतश्चरित्रभूषणाः यानी संत वही है, जिनके आभूषण सदाचरण हुआ करते हैं।
जो
इस आचरण को जीता है, उसे समझना चाहिए कि उसने ईश्वर को ही
अपने दिल में बसा रखा है,
और जिसके पास यह आचरण नहीं है, उसके तमाम धर्म-कर्म का भी कोई मतलब
नहीं है।
तुलसीदास
भी कहते हैं, संत हृदय जस निर्मल बारी और चंदन तरु
हरि संत समीर। अर्थात, सच्चे संत हर क्षण ईश्वर के भजन तथा
दूसरों को सद्विचार की सुगंध से सुवासित करते रहते हैं।