अभिशाप नहीं वरदान

राजा सिद्धार्थ और उनकी पत्नी रानी त्रिशला ने कलिंग देश के राजाजितशत्रु की सुंदर कन्या यशोदा को देखा, तो वे उसे पुत्रवधु बनाने के लिए उत्सुक हो उठे। तिशला ने अपने पुत्र वर्धमान के सामने विवाह की चर्चा की। इस पर वर्धमान ने उत्तर दिया, मां मैं तो वैसे ही देह के बंधन में बंधा हूं। अब और बंधन में नहीं बंधना चाहता। मां कई दिनों तक पुत्र को समझाने का प्रयास करती रही। लेकिन पुत्र वर्धमान ने एक दिन स्पष्ट कह दिया कि वह तो घर बार छोड़कर मुनि के रूप में साधना करने के संकल्प ले चुका है। मां त्रिशला का ममतामय हृदय यह सुनकर एक बार तो हाहाकार कर उठा। उन्होंने कहा, बेटा, मखमल पर चलने वाले पग वन की ऊबड़- खाबड़ कंटीली भूमि को कैसे सहन कर पाएंगे। वर्धमान बोले. मां पथ के शूल उसको चुभते हैं जो देहासक्त होते हैं। मुनि के लिए तो शूल व फूल समान होते हैं। जब वर्धमान घर त्यागने लगे तो मां त्रिशला ने क्रोध जताते कहा, तूने एक मां का दिल तोड़ा है, अब इस पृथ्वी पर कोई नारी तेरी मां नहीं बनेगी। तुझे दोबारा मानव जन्म नहीं मिल पाएगा। तू इस कंचन सी काया और सुंदर महल से हमेशा के लिए वंचित हो जाएगा। वर्धमान बोले, मां यह अभिशाप नहीं वरदान है मेरे लिए। आपके इन शब्दों में वही भावना व्यक्त की गई है, जिनका मैं पालन करना चाहता हूं। मुझमें अब मां बेटे के रिश्ते, सुंदर काया, राजमहल आदि के प्रति को आसक्ति नहीं रह गई है। वर्धमान वन में साधना करने के उपरांत कैवल्य ज्ञान को उपलब्ध हुए और जन्म मरण के बंधन से हमेशा -हमेशा के लिए मुक्त हो गए।