जीवन की समरसता अध्यात्म से ही प्राप्त हो सकती है !अध्यातम ही जीवन को समरस बनता है !जीव की जगाने की प्रक्रिया जिज्ञासा कहलाती है !अर्थात ,जब जीव जगाता है तो जिज्ञासा होती है और उसके बाद वह उपासना में जाता है !तदोपरांत साधना में प्रवेश करता है और साधना स्वरूप मनसा,वाचा ,कर्मणा ,त्रिगुणात्मक तत्व के साथ मूल अस्तित्व में जैसे ही प्रवेश करता है ,साधना सम्पन्न हो जाता है !हम निरन्तर अपने चैतन्य जीव को साधना से अलग रखते हैं ,जिसके फलस्वरूप जीवन में नीरसता आने लगाती है !ईश्वरीय शक्ति का तेज विलुप्त अवस्था की ओर उंमुख होने लगता है और हम नकारात्मक विचारों में लिप्त होने लगते हैं !अलोकिक आन्नद से परे भौतिकवादी तत्वों की ओर अपनी भावनाओं को संलिप्त कर देते हैं अर्थात मूलतः भौतिकवादी हो जाते हैं ,जिसके फलस्वरूप हमारी चेतनाएं कुंठित एवं अस्तित्वहीन होने लगाती है !हम मानव हैं और मानव की प्रवृति ,प्रकृति के सभी क्रियाकलापों परही निर्भर है ,अपितु हम भूल जाते हैं की प्रकृति की सरसता हमारे जीवन में सरस संचार करता है !जीवन एक सार तत्त्व है ,क्या हम अपने जीवन के विषय में कभी यह अनुभव करते हैं की सृष्टी में संचारित सम्पूर्ण शक्तियों का पुंज यह चैतन्य जीवन ही है ?यदि हम इनसभी विधाओं पर अपनी चैतन्य अवस्थाओं को एकाग्र कर शक्ति के सार को अनुभव के रूप में परिद्रिस्य करना चाहें तो उस ब्रह्मऔर शक्ति का स्वरूप हमारे अन्दर दृष्टीगोचर होने लगता है !मानव जीवन में समरसता प्रकृति के सरस ,सलिल ,मादक उर्जाओं के संचार के माध्यम से प्राप्त असीम शक्ति के पुंजों के माध्यम से प्राप्त असीम शक्ति के पुंजों का संग्रह ही है !जब जीव चैतन्य स्वरूप जगत में आता है ,तो उसके सभी प्रारब्ध उसके संस्कार के रूप में संलिप्त होते हैं !समयसापेक्ष   जीव मानव जीवन में अपनी सम्पूर्ण क्रिया विधि को सम्पन्न करने की कोशिश करता है ,लेकिन अध्यात्म विहीन होने के कारण वह अपनी परकस्थाओं को प्राप्त नहीं कर पता