अपने दुख का ताड़ बनाना


जीवन के सुख-दुख को देखने का हमारा चश्मा अलग-अलग होता है। दूसरों के सुख बड़े लगते हैं तो अपने दुख। अपने छोटे से छोटे दुख को गाने की ऐसी लत लगती है कि मानो एक हम ही हैं जो दुखों को झेल रहे हैं। बात यहीं तक नहीं रुकती, हम केवल यह नहीं चाहते कि लोग हमारे दुख को सुनें, हम उनकी सहानुभूति का फायदा भी उठाना चाहते हैं। अपने दुखों की आड़ में अपनी जिम्मेदारी  से बचते हैं। 

'मैंने जिंदगी देखी है', 'तुम्हें क्या पता दुख क्या होता है', 'मेरी किस्मत में सुख कहां', ऐसी ही कई बातें कहते हुए हम बिल्कुल दार्शनिक हो जाते हैं। ऐसे ज्ञानी, जिन्हें अपना राई बराबर दुख पहाड़ नजर आता है। हो सकता है कि आपके पास संसाधनों की कमी हो, बीमारी या परिवार की उपेक्षा झेल रहे हों, पर यह सच है कि संघर्ष सबके जीवन में होता है। लेकिन व्यक्ति के सहने की क्षमता और प्रवृति के आधार पर इसका अनुभव हर किसी को अलग होता है।

फैमिली थेरेपिस्ट और लेखिका इजाडोरा एल्मन कहती हैं, 'अपने दुख दूसरों को बताना मन की सेहत के लिए अच्छा होता है। पर उसकी नुमाइश करना या अपने दुख से लाभ कमाने की कोशिश करना, व्यक्तित्व की कमजोरी है। मन की हीनता और दुर्बलता है। यह दूसरों का ध्यान अपनी ओर खींचने की प्रवृत्ति है। मेरा अनुभव कहता है कि अपने दुख में मदद चाहिए तो बात को सीधे और स्पष्ट ढंग से सही लोगों के सामने कहें, वरना  हर समय सहानुभूति हासिल करने की लत नुकसान ही पहुंचाती है। 

नमक जैसा है दुख 

एक बूढ़ा जेन मास्टर अपने शिष्य की शिकायत करने की आदत से परेशान था। एक सुबह उन्होंने शिष्य को कुछ नमक एक गिलास पानी में मिलाकर पीने को दिया। मास्टर ने पूछा- कैसा है यह? शिष्य ने कहां, यह कड़वा लग रहा है, इसे पीना असंभव है। इसके बाद वे दोनों झील के किनारे गए। मास्टर ने उतना ही नमक झील के पानी में डाल दिया। शिष्य को फिर पानी पीने के लिए कहा और पूछा कि अब ये कैसा लग रहा है? शिष्य ने कहा, ये पानी बिल्कुल ताजा है। इसमें नमक का पता ही नहीं चल रहा। मास्टर ने कहा, जीवन में दुख भी नमक की तरह है।  इसकी मात्रा भी समान ही है। पर इसकी कड़वाहट निर्भर करती है कि हमने इसे किस बर्तन में डाला है। जब दुख हो तो शिकायत की जगह अपने नजरिए को बड़ा कर लेना चाहिए।  

अच्छी नहीं दुख की लत 

सेल्फ इंप्रूवमेंट वेबसाइट 'द इमोशनल मशीन' में स्टीवन हैंडल कहते हैं, दुखों की निरंतर चर्चा करना हमें अपने नकारात्मक अनुभवों से बाहर नहीं आने देता। हमें हर छोटी सी समस्या बड़ी दिखती है। हर समय दिमाग अतीत की गलियों में घूमता रहता है। ऐसे में जितना हम अपने दुख दूसरों के सामने रखते हैं, उतने ही नकारात्मकता और दुखों की ओर बढ़ जाते हैं। 

दुखों पर बात करने का सही तरीका  

'   सबके सामने अपना दुख को बोझ हल्का न करें। ऐसे लोगों से बातें करें, जो आपको सुनने को तैयार हैं। 
'   यदि सलाह व मदद की जरूरत है तो सीधा कहें। बढ़ा-चढ़ाकर बातें न करें। नाटकीय होने से बचें। 
'   मजाक का साथ न छोड़ें। खुद पर हंसें। दुख के प्रति गंभीर बने रहना तनाव बढ़ाता है। व्यावहारिक बनें। दुख को स्वीकार करें। 
'   संतुलन की ओर बढ़ें। बातें करें, पर ध्यान रखें कि समस्याओं पर बात करने का एक सही समय और जगह होती है।
 पूनम जैन

साभार हिदुस्तान